घंघोर घटा छाये
टप- टप गिरे यह नन्हे बूंद
बारिश तेज़ रफ्तार से आये
हड़बडाई हुई मैं…
गांव से निकली, शहर की ओर
उन राहों से
जिनसे वो निकलें
चली मैं ढूंडने उन्हें
उनकी ओर...
कहीं भीग तो नहीं गए, वो?
सोच मे डूबी
ढूंडती गयी उन्हें गली- गली
घबराई…
यह बिन मौसम की बरसात,
बिन बुलाये मेहमान की तरह
न जाने क्यों आई?
क्यूँ आई?
कहके गए थे, बस अभी आ जाऊँगा
घंटे निकल गए
न दिखा उनका नामों- निशान
हर जगह ढूँडा उन्हें
हुई मैं बेबस और परेशान
इस ठंडी- ठंडी मौसम का
न कुछ मुझको भाए
ज़ुल्फें मेरे लेहराएं
पर मन बैठा जाये
अचानक एक आवाज़ आई:
" सुमित्रा!
इस बारिश मे कहाँ जा रही हो?
कहीं उन्हें ढूँडने तो नहीं फिर निकल गयी?
उनके गुज़रे हुए महीने हो गये हैं
घर चली जाओ, गुड़िया
चली जाओ घर...."
दिव्या
मोहन
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